Tuesday, July 21, 2009

व्यंग्य : इस्तीफ़ा दे दीजिये ना, प्लीज !!!!!!!!!!

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

गीता में कहा गया है कि "क्या लेकर आए थे, क्या लेकर जाओगे, जो कुछ पाया यहीं पाया और यहीं पर छोड़ जाना है". लेकिन लोकतन्त्र इन सब से ऊपर है. यहां सीट यानी कुर्सी अपने साथ ही ले जाने का प्रावधान है. कुर्सी या सदन की सदस्यता कोई म्रगत्रष्णा नहीं है, और इस्तीफ़ा तो अजर है, अमर है. आग, पानी, हवा सभी से सुरक्षित है. कोई भी, कहीं भी, किसी भी सन्दर्भ में, कभी भी इस्तीफा दे सकता है. वैसे भी कुछ सालों में वह पुराना हो ही जाता है. अत: इसका उपयोग और उपभोग करना भी ज़रूरी है.


इस्तीफा देना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है. यह आपके मूल अधिकारों में शामिल है कि आप बिना किसी शर्म के बेझिझक इस्तीफ़ा दे सकते हैं. कोई भी आपको ऐसा करने से रोक नहीं सकता. इस्तीफ़ा लोकतन्त्र को, राजनीति को, समाज को, स्वयं आपको गति प्रदान करता है. य़ह आपकी क्रियाशीलता का परिचायक है. खुद आप को व देश को पता चलता है कि आप ज़िन्दा हैं, सांस ले रहे हैं और आगे भी लेते रहेंगे.


दूसरी तरफ़ अगर विचार किया जाए तो कई बार इस्तीफ़ा देने के बाद ही पता चलता है कि आप कहां थे और क्या कर रहे थे. विचार योग्य यह है कि इस्तीफ़ा किसने दिया, क्यूं दिया. स्वयं दिया या किसी दबाव में आकर दिया. बाकी सब तो मोटी-मोटी फ़ाइलों, जांच समितियों और समय की धूल की तह में दबा रह जाता है.

इस्तीफ़ा एक तोप की तरह है. किसी भी तरफ़ मुंह मोड़ दीजिए, बाकी काम स्वयं हो जाएगा. मैंने भी कई बार इस्तीफ़ा दिया है. आप भी दे सकते हैं. इस्तीफ़ा दो - इस्तीफ़ा लो. आज तुम दो, कल मै दूंगा. भेड़चाल है इस्तीफ़ा न हुआ मानो बधाई पत्र हो गया. वो दिन दूर नहीं जब एक विशेष आयोजन किया जाएगा कि फ़लां साहब, फ़लां तारीख को शाम चार बजे अपने इस्तीफ़े की घोषणा करेगें. चाहें तो यह शुरुआत आप भी कर सकते हैं. बस इस्तीफ़ा देने के लिये शेर जैसा दिल चाहिए. मुमकिन है कि "गिनीज बुक" वालों की नज़र भी इन इस्तीफ़ों की तरफ़ हो कि किसने कितनी बार इस्तीफ़ा दिया, किसने सबसे कम समयांतराल में दुबारा इस्तीफ़ा दिया. एक ही साथ एक ही दिन कितने इस्तीफ़े दिए गए वगैरह..वगैरह.


कल शायद आपके ही बीवी-बच्चे कहने लगें कि आप भी क्यों नहीं दे देते इस्तीफ़ा. इतने लोग दे रहे हैं आप भी दे दीजिए. इतने सालों से आप ने एक बार भी इस्तीफ़ा नहीं दिया. शायद बेटा ही कह दे कि "डैडी" मुझे स्कूल में शर्म आती है आपकी वजह से. वहां सभी के "डैडी" कम से कम दो-तीन बार तो इस्तीफ़ा दे चुके हैं. आप भी "प्लीज" एक बार तो इस्तीफ़ा दे ही दीजिए...दे दीजिए न....प्लीज....

(पेज २७, सबरंग, जनसत्ता कलकत्ता , १० मार्च १९९६)

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