Friday, September 4, 2009
कविता : मानव अभिव्यक्ति
अपने ही जाल में फंसा
बिलखता तड़पता
कैद पक्षी की तरह
आज़ादी खोजता |
कल्पना की उड़ाने भरता
अथाह सागर में सहारा तलाशता
रेत के घर बनाता
बिखेरता तोड़ता |
वक़्त से जूझता
स्वप्न में मुस्कराता
अपनी ही लाठी से
खुद को हांकता |
चलता, रुकता
रुक रुक कर चलता
झूठ के दर्पण में
सच की परछाई खोजता |
ख़ुशी को तलाशता
दिल को समझाता
मजबूर बेकसूर
ग़म का तोहफा पाता |
थक हारकर अंत में
दूर आसमान को ताकता
तन्हाई के आगोश में
चिर निद्रा में सो जाता |
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WAH WAH
ReplyDeleteKYA BAAT KAHI H
एक स्वच्छ और सुंदर आख्यान....
ReplyDeleteबधाई।
-प्रत्यूष गर्ग
दर्द की सैलाब से भरी है अंतिम कुछ पंक्तियाँ........
ReplyDeleteचलता, रुकता
ReplyDeleteरुक रुक कर चलता
झूठ के दर्पण में
सच की परछाई खोजता |
अच्छी लगी ये पंक्तियाँ.