Tuesday, October 13, 2009

व्यंग्य : आंखों का पानी मरना !!!!!!!!!!!

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

लो जी अब जाकर आखिर हमारे दिल को चैन आ ही गया। सिद्ध हो गया कि चन्द्रमा पर पानी मौजूद है। सोचो अगर वहां पानी नहीं मिलता तो क्या होता। आईये अब जरा इस बात तो अपने तरीके से समझने की कोशिश करते हैं। एक पुरानी कहावत है “आंखों का पानी मरना या ढलना” जिसका मतलब है किसी की मर्यादा का ध्यान या लज्जाशीलता न रह जाना। निर्लज्ज हो जाना। जैसे-जब आँख का पानी ढल गया तब नंगे होकर नाच भी सकते हो।
अब यह किसी से छुपा तो है नहीं कि आज हमारे देश का क्या हाल है। सरकार तो धृतराष्ट्र की तरह आंखों पर पट्टी बांध नेत्रहीन बनकर बैठी है। घाटे में चल रही कम्पनी में भी लोगों को भर भर कर बोनस दिया जा रहा है. सी.ई.ओ. के वेतनमान और हमारी गरीब जनता के बीच में एक अजीब सा तारतम्य है। दोनों की संख्या करोड़ो में है। एयरलाईंस के पायलटों को मिलने वाला १०-१५ लाख महीने वेतन समझ से परे है, उस पर उनका बार बार हड़्ताल पर जाना सर्वथा अनुचित है। सरकार के लिये यह एक अपमान का विषय है कि घाटे में चल रहे संस्थानों में किस तरह लाखों रुपयों का परफ़ोरमैन्स बोनस दिया या लिया जा सकता है।
आओ अब गंगा नदी की सफ़ाई से जुड़ी सफ़ाई की गहराई में जाकर देखते हैं कि सरकार की आंखों का पानी मरा कि नहीं। करोड़ो रुपये सरकार पहले ही सफ़ाई पर लुटा चुकी है। सरकार को खुद नहीं पता कि वो रुपये आखिर गये कहां ? पिछले १० सालों में सरकार १५०० करोड़ रुपये गंगा सफ़ाई अभियान के तहत खर्च कर चुकी है। अब वर्ल्ड-बैंक गंगा की सफ़ाई के लिये भारत को १५००० करोड़ रुपये की सहायता दे रहा है। सरकार में उपर से नीचे तक सभी अधिकारी अभी से इन करोड़ों रुपयों को साफ़ करने की योजना बना रहे होंगे। अब देखना यह है कि इस बार भी सिर्फ़ रुपये साफ़ होते हैं य़ा गंगा भी। सुप्रीम कोर्ट ने २००७ में एक कमेटी बनायी इस सफ़ाई की जांच के लिये, पता नहीं उस जांच का क्या हुआ।
सरकार एक तरफ़ स्विस बैंक में छुपे काले धन को वापस लाना चाहती है तो दूसरी तरफ़ यह करोड़ों रुपये की योजनाओं पर आंख बंद कर धन प्रदान कर काले धन को बढ़ावा भी देती है। काम हुआ या नहीं यह देखना सरकार का काम नहीं। हर साल दिल्ली और मुंबई में ही करोड़ों रुपयों से नालों की सफ़ाई, सड़्को के रखरखाव पर खर्च किये जाते है, वो बात अलग है कि समस्या वहीं की वहीं रहती है। तो सवाल यह है कि आखिर यह करोड़ों रुपया जा कहां रहा है ?
राहुल गांधी का यह कहना कि कांग्रेस की नीति “गरीबों की सेवा” ही कांग्रेस की जीत का मूलमंत्र है और हमेशा रहेगा। मेरी समझ या नासमझी में इसका एक ही मतलब निकलता है, और वो है कि “जब तक भारत में गरीबी है, तब तक कांग्रेस की जीत पक्की है”। अगर भारत का चीन, जापान की तरह विकास हो गया, सब पढ़ लिख लिये तो कोई गरीब नहीं रहेगा। फ़िर कांग्रेस क्या करेगी ?
इन सब बातों को देखकर यही लगता है कि देश में सभी की आंखों का पानी मर गया है। हम धरती के पानी की तो कद्र कर नहीं सके, चन्द्रमा के पानी का जाने क्या करेंगे। अब भी वक्त है कि हम देश की खातिर संसाधनों का दुरुपयोग न करें वरना वो दिन दूर नहीं कि हमें स्वस्थ हवा, पानी वगैरह नसीब न हो। अगर हम धरती पर अपने लिये स्वस्थ हवा, पानी बचा सके तो यह हमारे लिये किसी विश्व विजय से कम न होगा। चंद्रमा और मंगल पर जीवन अभी एक कल्पना भर है, परन्तु धरती का विनाश हमारे कारण अब काफ़ी करीब नजर आने लगा है।

Wednesday, September 30, 2009

कविता: मेरे घर का पता

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

पूछे कोई मेरे घर का पता
उन सीमाओं में,
जिन के दोंनो ओर
मेरे अपने ही रहते हैं ।

वो उन ज़मीनों का नाम लेंगे
जहाँ मेरी गरीबी पर
परिहास किया गया था ।

वो उस मिट्टी को पुकारेंगे
जो मेरी सच्चाई
की कब्रगाह है ।

वो उन पर्वतों की ओर देखेंगे
जो कभी मानवता के आगे
शीश झुकाते थे ।

वो उस धरती पर ढूंढेगे
जो सैकड़ो बार
रक्त से नहाई है ।

वो उन धर्मों से पूछेंगे
जो कभी खुद
उनके अपने न हुऎ ।

वो उन मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों में पुकारेंगे
जहाँ मैंने सौ सौ बार
नमन किया था ।

वो उन हवाओं से पूछेंगे
जो कभी मुझको
छूकर गुज़रती थी ।

वो उन नदियों की ओर देखेंगे
जिनमें सदगुणों को अक्सर
बहा दिया जाता है ।

लेकिन मुझे विश्वास है
वो फिर भी मुझे नहीं पहचानेंगे
क्योंकि आज मैं भी
उन में से एक हूँ
उनके साथ ही खड़ा
खुद को ढूंढ रहा हूँ
जन्मों जन्मों से
कई जन्मों से ।

नज्म : मासूम ना बना कीजिये

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


आप यूँ मासूम ना बना कीजिये
ख़त मिल गया जवाब तो दीजिये ।

मेरी पहली मोहब्बत है यह सनम
कुछ कमी रही अगर बता तो दीजिये ।

हल्का हल्का सा नशा मेरी आंखों में है
नींद मेरी मुझे अब लौटा तो दीजिये ।

रूठ जाना कभी और लेकिन सनम
आज ज़रा सा मुस्करा तो दीजिये ।

न हो इंतज़ार बहाना तो कीजिये
नज़र से नज़र आज मिला तो दीजिये ।

Friday, September 4, 2009

कविता : मानव अभिव्यक्ति

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


अपने ही जाल में फंसा
बिलखता तड़पता
कैद पक्षी की तरह
आज़ादी खोजता |

कल्पना की उड़ाने भरता
अथाह सागर में सहारा तलाशता
रेत के घर बनाता
बिखेरता तोड़ता |

वक़्त से जूझता
स्वप्न में मुस्कराता
अपनी ही लाठी से
खुद को हांकता |

चलता, रुकता
रुक रुक कर चलता
झूठ के दर्पण में
सच की परछाई खोजता |

ख़ुशी को तलाशता
दिल को समझाता
मजबूर बेकसूर
ग़म का तोहफा पाता |

थक हारकर अंत में
दूर आसमान को ताकता
तन्हाई के आगोश में
चिर निद्रा में सो जाता |

Thursday, September 3, 2009

नज्म : नई दुनिया

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


जब भी खुद को तन्हा पाईये ।
लंबी कतारों में खड़े हो जाईये ॥

शौक है अगर ताकत आजमाने का ।
जा पत्थरों से आज सर टकराईये ॥

आज मौसम की पहली बारिश है ।
पाप अपने भी कुछ बहा आईये ॥

खुशबू फ़ूलों की आज चुरा ली किसने ।
चाँद तारों से नया गुलिस्तां सजाइये ॥

बेकार है अभिमन्यु रोशनी की तलाश ।
अंधेरों में एक नई दुनिया बसाइये ॥

Sunday, August 30, 2009

व्यंग्य : आओ मिलकर देखें !!!!!!!!!!!

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


वर्षों से हम इधर-उधर की अनेक घट्नाऐं देखते चले आ रहे हैं। कभी आपने सोचा है कि यह देखने दिखाने की प्रक्रिया आखिर है क्या ? साइंस कहती है कि जो भी वस्तु आपकी आँखों के सामने है, उसका प्रतिबिम्ब आँख के अंदर बनता है और हम देख पाते हैं। लेकिन मेरा मत हमेशा इसके विपरीत रहा है और हमेशा रहेगा। मेरा मानना है कि कई बार आप उन सभी वस्तुओं को भी देख पाते हैं, समझ लेते हैं, जो आपकी दृष्टि से सर्वथा दूर हैं या दूर रही हैं। अब देखिये मेरी आँखें आपको इन शब्दों को पढ़ते हुऐ देख रही हैं, सही है कि नहीं ?..।

देखना भी कई तरह का होता है, जैसे खुली आँखों से देखना, बंद आँखों से देखना, सोते सोते देखना, देखकर भी न देखना आदि। देखा साइंस फ़ेल हो गयी न!। अगर आप सरकारी महकमें में हैं तो सोते सोते देखना, देखकर भी न देखना ही आपके हित में है।

कुछ सालों पहले एक आवाज सुनाई देती थी, हमने देखा है....हम देख रहे हैं...हम देखेंगे...वगैरह वगैरह। अब क्या देखा...देखा भी कि नहीं...मालूम नहीं। बहरहाल मैंने मन की आँखों से बहुत कुछ देखा है। अभी एफ़एम पर गाना आ रहा था, आओ बच्चों तुम्हें दिखाऐं झांकी हिन्दुस्तान की....मेरे हाथ में गर्म चाय का प्याला, मेज पर पेपर, पेपर में हवाला, बोफ़ोर्स, पशुपालन, उपहार सिनेमा, डायरी, एनरान, दाउद, अंडरवर्ल्ड, गोधरा, आतंकवाद, महामारी, भ्रष्टाचार, बलात्कार, टूटी सड़्कें, खुले मेनहोल्स, पानी की कमीं, सीवर के पानी की घरों में सप्लाई, घंटों बिजली की सप्लाई गुल, मिलावटी दूध, ....वाह क्या झांकी है। दिल खुश हो गया। मुझे विश्वास ही नहीं बल्कि यकीन है कि हमने आजादी की लड़ाई इसी दिन के लिये लड़ी थी। अंग्रेज हमें यह सब कहां दे पाते!

मैं गांधीवाद से प्रेरित हूं, उनका भक्त हूं। वैसे मेरी और उनकी राशि भी एक ही है। उनके तीन बंदर महान हैं। इन तीनों में बंद आंखों वाला मुझे ज्यादा प्रिय है। "बुरा मत देखो" गांधी का सिद्धांत था, मेरा भी है। मैं टेलीविजन नहीं देखता। लेसर कार्यक्रम नहीं देखे। मैंने जैन साहब को नहीं देखा, न उनकी डायरी, न बिहार के पशुपालन विभाग को। एनरान प्लांट मैंने क्या, बहुतों ने नहीं देखा। दाउद को किसी ने नहीं देखा। अगर यह सब कुछ नहीं देखा तो गलत क्या है ? बुरा क्या है ? हमें सिर्फ़ कर्म करना है और हम कर रहे हैं। फल की चिंता हमें नहीं करनी है। हमारी सरकार और नेताओं ने बुरा न देखने में पीएचडी कर रखी है। वह सिर्फ उपलब्धियां गिनाने में विश्वास रखती है।

कितना कुछ कहो, अब थोड़ा फ़र्क तो पड़ता ही है। जैन साहब की डायरी के बाद बहुत लोगों का मोह डायरी से भंग हो गया था। जैसे कुछ सालों पहले सूटकेस से हो गया था। सोचता हूं कि इन सब से अच्छे तो हमारे पांचाग और संदूक ही थे, कभी इस तरह बदनाम तो न हुए। अब यह जैन साहब की मर्जी थी कि वो किसको क्या देते हैं। मुझे भी तो कुछ नहीं मिला, लेकिन मैंने तो कोई हल्ला नहीं मचाया। पता नहीं लोगों को दूसरों के काम में टांग फंसानें की आदत क्यों होती है। अरे जैन साहब ही थे क्या अकेले..., बोफोर्स, स्विस बैंक, एनरान, सरकारी टेंडर, यमुना सफ़ाई, हर्षद मेहता, दाउद भाई....किसी को भी चुन लो। इन सभी के दर से आज तक कोई भी खाली हाथ नहीं लौटा।

यह आरोप तो बिल्कुल बेबुनियाद है कि बिहार में पशुपालन विभाग में अरबों का घोटाला हुआ। अरे साहब मन की आखों से देखिये, पैसा निकाला गया पशुओं के लिये, तो ठीक जगह ही तो उपयोग हो रहा है। क्या आप अब भी उनको मनुष्य की श्रेणी में रखना चाहते हैं ?। आप और मैं तो इस तरह से पैसा लेने से रहे, इज्ज़त का सवाल है भाई। आत्म सम्मान भी तो किसी चिड़िया का नाम है। मैंने तो सोच लिया है कि जिस दिन भी यह महसूस हुआ कि मैं इंसानियत की श्रेणी से नीचे गिर गया हूं तो मुर्गी, मछ्ली, मधुमक्खी, सुअर, गधा, कुत्ता, गाय, भैंस पशुपालन ही क्या कोई भी पालन जैसे अनाथालय क्यों न हो, उसी के संदर्भ में अपना और अपनों का पालन शुरु कर दूंगा। यह कोई अपराध नहीं है। सभी पशुओं को अपने तरीके से जीने की पूरी आज़ादी है। तुम मनुष्यों को यह हक किसने दिया कि हमारी आज़ादी में खलल डालो। मुझे तो उल्टा आश्चर्य इस बात पर है कि पशुओं के पालन के लिये इतना कम बजट कि अलग से पैसा निकलवाना पड़ा। शर्मनाक है यह स्थिति, और मेरा सरकार से अनुरोध है कि हम सभी पशुओं पर कोई कार्यवाही न की जाय। इस बात की जांच के लिये एक उच्च स्तरीय समिति बनायी जाये कि पशुपालन का बजट ऊंट के मुंह में जीरे समान क्यों रखा गया है। पशुधन के लिये इतना कम धन, यह इंसाफ नहीं है।

अब देखना यह है कि क्या देखा जाता है और क्या दिखाया। हम तो आंख बंद कर अपने इष्टदेव से प्रार्थना ही कर सकते हैं। आओ मिलकर देखें कि आगे क्या होता है.......

Saturday, August 1, 2009

व्यंग्य : सर्वे भवन्तु सुखिन:

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


कहने को तो यह संसार एक मिथ्या है। आदमी पैदा होता है, जिंदगी जीता है और वीरगति को प्राप्त हो जाता है। वीरगति इसलिए कि आज यह संसार, यह दुनिया एक युद्ध भूमि (लोग कहते हैं कि पहले यह एक कर्म भूमि हुआ करती थी) दिखायी दे रही है। आप को यहाँ अपनी हर जरूरत के लिये एक युद्ध सा लड़ना पड़ता है, चाहे वह दैनिक काम ही क्यों न हो।युद्ध के साथ हार-जीत तो लगी ही रहती है। यह हार-जीत ही शायद सुख-दुख के पर्याय हैं। अब बात सुख-दुख पर आकर ठ्हर जाती है।

सुख क्या है ? अगर कोई आप से पूछे "क्या आप सुखी हैं ?" तो शायद आप असमंजस में पड़ सकते हैं। हो सकता है कि तभी आप सोचने लगें कि आखिर यह सुख क्या बला है, किस चिड़िया का नाम है। शायद आप सुख की कल्पना बरसात के मौसम में दिखाई देने वाले सूरज से करने लगें जो कई-कई दिनों तक नजर नहीं आता। वैसे तो कुछ लोगों की नजर में सुख-दुख सब किस्मत का खेल है (और अगर यह कोई खेल है तो भगवान न करे कि इसकी दशा भारतीय हाकी जैसी हो जाये)।

यहाँ मेरा उद्देश्य सुख के तात्पर्य पर किसी सामूहिक चर्चा का नहीं है। यहाँ सुख की परिभाषा सभी के लिये उसी तरह अलग है जिस तरह नायिकाओं के सौंदर्य व रंग-रुप को निखारने, बनाये रखने के साबुन अलग-अलग हैं। हो सकता है कि आप इस भ्रमजाल से मुक्ति पाने के लिये मुझसे ही पूछ लें कि आप ही बताइये "क्या आप सुखी हैं ?"। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं सुखी हूँ। मेरे पास ढेर सारा सुख है। कहें तो स्टाम्प पेपर पर लिखकर दे सकता हूँ।

मै सुखी हूँ, क्योंकि मेरी पत्नी, मेरे बच्चे सुखी हैं। मेरा सुख पत्नी और उसके मायके से जुड़ा है। य़हाँ मायका अहम है, बाकी सब तुच्छ है। वैसे सुख से मेरा रिश्ता बहुत पुराना नहीं है। ये तो मेरे ससुर की लाड़्ली बेटी या यूँ कहिये कि मेरी इकलौती पत्नी ने ही सुख से मेरा परिचय कराया। उसके घर पर, मेरा मतलब मेरे सास, ससुर, साला वगैरह सभी सुखी हैं। य़हाँ यह बात गौर करने लायक है कि शादी से पहले मैं कदापि सुखी नहीं था।

मेरे ससुर एमएलए हैं। साले की शादी एक मन्त्री की इकलौती सुपुत्री से कुछ समय पहले ही सम्पन्न हुई थी। मेरे ससुर भी पहले उतने सुखी और तन्दुरुस्त नहीं थे जितने आज हैं। आजकल उनके चेहरे पर १००० वाट के बल्ब जितनी चमक दिखाई देती है। उनका चेहरा प्रकाश के परावर्तन और अपवर्तन के सभी नियमों का घोर उल्लंघन करता हुआ सदा मुस्कराता नजर आता है। हेयर डाई से सलीके से डाई किये बाल, सफ़ेद खादी सिल्क के कुर्ते पर सावन की काली घटा जैसे कुछ इस तरह छाये रहते हैं कि कविगण इस कल्पना पर कई पन्ने काले कर सकते हैं।

एक बार मेरे ससुर ने पूछा "बेटा क्या अब तुम सुखी हो, कोई तकलीफ़ तो नहीं ?"। मेरे मुँह से निकल पड़ा " जी... बिल्कुल मजे में हूँ। आपका दिया सारा सुख मेरे पास है"। फ़ैक्ट्रियों से जितना वक्त बचता है, वह पैट्रोल पंपों की कमाई गिनने में कट जाता है। बस यह आपका इम्पोर्ट- एक्सपोर्ट का नया सुख मुझसे नहीं संभाला जा रहा। वो बोले, बेटा हिम्मत से काम लो। अपने साले को देखो जरा, उसके पास चार फ़ैक्ट्रियाँ और तीन पैट्रोल पंप हैं, फिर भी वह मेरे और अपने ससुर के काम में हाथ बटाता है। चुनाव का मौका हो, रैली निकलवानी हो या भीड़ इकट्ठी करनी हो, कैसे चुट्की बजाते सारा काम कर देता है।

देखा आपने! यकीनन मेरे ससुर, मेरा साला, उसके ससुर सभी सुखी हैं। उनके सुखी होते ही सुख का इतना प्रचार और प्रसार हुआ कि उनके सभी अभिन्न मित्र और सगे-संबधी भी सुख के सागर में तैरने लगे। मैं अपने पूर्वजों को कभी नहीं भूलता और न ही उनकी कही गयी व्यवहारिक बातों को। उनकी बातें आज भी प्रयोगात्मक रुप से सही हैं। जैसे उन्होंने कहा कि "बाँट्ने से बोझ हल्का होता है"। यह उक्ति हम सभी पर सोलह आने सटीक उतरती है। मेरे साले के ससुर के पास जब बहुत सा सुख इकट्ठा हो गया तो उन्होंने सुखों का थोड़ा सा बोझ अपने दामाद और रिश्तेदारों के साथ बांट कर चैन की सांस ली।

इस बंदरबांट में मेरे हिस्से भी सुख की कुछ बूंदे मेरे ससुर द्वारा मेरी ओर ट्पकायी गयीं (आखिर सभी मां बाप अपनी संतानों को सुखी देखना चाहते है)। सुख से, सुख के साथ अच्छा समय बीतता रहा। और जैसा सभी के साथ होता है, एक वक्त के बाद मेरे उपर भी सुख का बोझ बढ़्ने लगा। अंतत: मुझे भी अपने मित्रों और रिश्तेदारों के साथ अपना बोझ हल्का करना पड़ा। आज मेरे प्रिय मित्र और रिश्तेदार भी सुखी हैं।

धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि मैं जितना सुख बाँट रहा हूँ, उतना ही यह और बढ़्ता जा रहा है। दूर-दूर के रिश्तेदारों तक बाँटने पर भी जब इस सुख का बोझ हल्का नहीं हुआ, तो मुझे मजबूरन अनाथालयों, दानखातों, चेरिटेबिल संसथाओं जैसे सड़े गले सामाजिक ढ्कोसलों की शरण में जाना पड़ा। यह किसी बेइज्जती से कम नहीं था, पर इस तरह धड़ा-धड़ सुख बांटने के कारण लोगों के दिलों में मेरे लिये असीम प्यार उमड़ पड़ा। देखते ही देखते मुझे घसीटकर किसी पार्टी का टिकट थमाकर, भारी मतों से विजयी बनाकर चार टांगो वाली एक कुर्सी का मंत्री बना दिया गया।

इस वक्त मेरा सुख (साथ में कमर का नाप भी) रामायण-महाभारत के एपिसोड़ों की तरह बढ़्ता जा रहा था। अब मेरे पास इस सुख को ए़क्सपोर्ट करने के अलावा कोई रास्ता न बचा। ए़क्सपोर्ट में मेरे साले व ससुर का सहयोग मुझे नतमस्तक कर गया। इसी दौरान मुझे चारा, यूरिया, कोलतार, सीमेंट, बोफ़ोर्स आदि खाने का अभ्यास करना पड़ा। मैं शुक्रगुजार हूं अपने पेट, पाचन तन्त्र का जिसने उसे आसानी से पचाया वरना आजकल आम आदमी शुद्ध घी भी नहीं पचा पा रहा। सुखों के भारी बोझ ने मुझे ए़क्सपोर्ट की नई विधियां तलाशने को मजबूर किया।

इस तरह मैं ए़क्सपोर्ट ए़क्सपर्ट बना और सम्मानित हुआ। आज कई विदेशी बैंकों में मेरा बहुत सा सुख जमा है।मुझे शिकायत है उन सुखरामों से जो सुख के चंद टुकड़े बिस्तर के नीचे छोड़कर या भूलकर सुख का अपमान करते हैं और फिर विदेश भाग जाते हैं। दूर दूर तक नजर दौड़ाने पर भी मुझे अपना कोई रिश्तेदार या मित्र नजर नहीं आता, जिसे मेरे सुख से सुख ना मिला हो। मेरा उसूल हमेंशा बाँट कर सुख भोगने का है और हमेशा रहेगा। यदि आप इन सभी सुखों से दूर हैं तो यह आपकी बदकिस्मती है कि आप इस जन्म में मेरे या अन्य किसी सुखी सज्जन के मित्र या रिश्तेदार न हुए।

Tuesday, July 21, 2009

व्यंग्य : इस्तीफ़ा दे दीजिये ना, प्लीज !!!!!!!!!!

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

गीता में कहा गया है कि "क्या लेकर आए थे, क्या लेकर जाओगे, जो कुछ पाया यहीं पाया और यहीं पर छोड़ जाना है". लेकिन लोकतन्त्र इन सब से ऊपर है. यहां सीट यानी कुर्सी अपने साथ ही ले जाने का प्रावधान है. कुर्सी या सदन की सदस्यता कोई म्रगत्रष्णा नहीं है, और इस्तीफ़ा तो अजर है, अमर है. आग, पानी, हवा सभी से सुरक्षित है. कोई भी, कहीं भी, किसी भी सन्दर्भ में, कभी भी इस्तीफा दे सकता है. वैसे भी कुछ सालों में वह पुराना हो ही जाता है. अत: इसका उपयोग और उपभोग करना भी ज़रूरी है.


इस्तीफा देना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है. यह आपके मूल अधिकारों में शामिल है कि आप बिना किसी शर्म के बेझिझक इस्तीफ़ा दे सकते हैं. कोई भी आपको ऐसा करने से रोक नहीं सकता. इस्तीफ़ा लोकतन्त्र को, राजनीति को, समाज को, स्वयं आपको गति प्रदान करता है. य़ह आपकी क्रियाशीलता का परिचायक है. खुद आप को व देश को पता चलता है कि आप ज़िन्दा हैं, सांस ले रहे हैं और आगे भी लेते रहेंगे.


दूसरी तरफ़ अगर विचार किया जाए तो कई बार इस्तीफ़ा देने के बाद ही पता चलता है कि आप कहां थे और क्या कर रहे थे. विचार योग्य यह है कि इस्तीफ़ा किसने दिया, क्यूं दिया. स्वयं दिया या किसी दबाव में आकर दिया. बाकी सब तो मोटी-मोटी फ़ाइलों, जांच समितियों और समय की धूल की तह में दबा रह जाता है.

इस्तीफ़ा एक तोप की तरह है. किसी भी तरफ़ मुंह मोड़ दीजिए, बाकी काम स्वयं हो जाएगा. मैंने भी कई बार इस्तीफ़ा दिया है. आप भी दे सकते हैं. इस्तीफ़ा दो - इस्तीफ़ा लो. आज तुम दो, कल मै दूंगा. भेड़चाल है इस्तीफ़ा न हुआ मानो बधाई पत्र हो गया. वो दिन दूर नहीं जब एक विशेष आयोजन किया जाएगा कि फ़लां साहब, फ़लां तारीख को शाम चार बजे अपने इस्तीफ़े की घोषणा करेगें. चाहें तो यह शुरुआत आप भी कर सकते हैं. बस इस्तीफ़ा देने के लिये शेर जैसा दिल चाहिए. मुमकिन है कि "गिनीज बुक" वालों की नज़र भी इन इस्तीफ़ों की तरफ़ हो कि किसने कितनी बार इस्तीफ़ा दिया, किसने सबसे कम समयांतराल में दुबारा इस्तीफ़ा दिया. एक ही साथ एक ही दिन कितने इस्तीफ़े दिए गए वगैरह..वगैरह.


कल शायद आपके ही बीवी-बच्चे कहने लगें कि आप भी क्यों नहीं दे देते इस्तीफ़ा. इतने लोग दे रहे हैं आप भी दे दीजिए. इतने सालों से आप ने एक बार भी इस्तीफ़ा नहीं दिया. शायद बेटा ही कह दे कि "डैडी" मुझे स्कूल में शर्म आती है आपकी वजह से. वहां सभी के "डैडी" कम से कम दो-तीन बार तो इस्तीफ़ा दे चुके हैं. आप भी "प्लीज" एक बार तो इस्तीफ़ा दे ही दीजिए...दे दीजिए न....प्लीज....

(पेज २७, सबरंग, जनसत्ता कलकत्ता , १० मार्च १९९६)