Saturday, August 1, 2009

व्यंग्य : सर्वे भवन्तु सुखिन:

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


कहने को तो यह संसार एक मिथ्या है। आदमी पैदा होता है, जिंदगी जीता है और वीरगति को प्राप्त हो जाता है। वीरगति इसलिए कि आज यह संसार, यह दुनिया एक युद्ध भूमि (लोग कहते हैं कि पहले यह एक कर्म भूमि हुआ करती थी) दिखायी दे रही है। आप को यहाँ अपनी हर जरूरत के लिये एक युद्ध सा लड़ना पड़ता है, चाहे वह दैनिक काम ही क्यों न हो।युद्ध के साथ हार-जीत तो लगी ही रहती है। यह हार-जीत ही शायद सुख-दुख के पर्याय हैं। अब बात सुख-दुख पर आकर ठ्हर जाती है।

सुख क्या है ? अगर कोई आप से पूछे "क्या आप सुखी हैं ?" तो शायद आप असमंजस में पड़ सकते हैं। हो सकता है कि तभी आप सोचने लगें कि आखिर यह सुख क्या बला है, किस चिड़िया का नाम है। शायद आप सुख की कल्पना बरसात के मौसम में दिखाई देने वाले सूरज से करने लगें जो कई-कई दिनों तक नजर नहीं आता। वैसे तो कुछ लोगों की नजर में सुख-दुख सब किस्मत का खेल है (और अगर यह कोई खेल है तो भगवान न करे कि इसकी दशा भारतीय हाकी जैसी हो जाये)।

यहाँ मेरा उद्देश्य सुख के तात्पर्य पर किसी सामूहिक चर्चा का नहीं है। यहाँ सुख की परिभाषा सभी के लिये उसी तरह अलग है जिस तरह नायिकाओं के सौंदर्य व रंग-रुप को निखारने, बनाये रखने के साबुन अलग-अलग हैं। हो सकता है कि आप इस भ्रमजाल से मुक्ति पाने के लिये मुझसे ही पूछ लें कि आप ही बताइये "क्या आप सुखी हैं ?"। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं सुखी हूँ। मेरे पास ढेर सारा सुख है। कहें तो स्टाम्प पेपर पर लिखकर दे सकता हूँ।

मै सुखी हूँ, क्योंकि मेरी पत्नी, मेरे बच्चे सुखी हैं। मेरा सुख पत्नी और उसके मायके से जुड़ा है। य़हाँ मायका अहम है, बाकी सब तुच्छ है। वैसे सुख से मेरा रिश्ता बहुत पुराना नहीं है। ये तो मेरे ससुर की लाड़्ली बेटी या यूँ कहिये कि मेरी इकलौती पत्नी ने ही सुख से मेरा परिचय कराया। उसके घर पर, मेरा मतलब मेरे सास, ससुर, साला वगैरह सभी सुखी हैं। य़हाँ यह बात गौर करने लायक है कि शादी से पहले मैं कदापि सुखी नहीं था।

मेरे ससुर एमएलए हैं। साले की शादी एक मन्त्री की इकलौती सुपुत्री से कुछ समय पहले ही सम्पन्न हुई थी। मेरे ससुर भी पहले उतने सुखी और तन्दुरुस्त नहीं थे जितने आज हैं। आजकल उनके चेहरे पर १००० वाट के बल्ब जितनी चमक दिखाई देती है। उनका चेहरा प्रकाश के परावर्तन और अपवर्तन के सभी नियमों का घोर उल्लंघन करता हुआ सदा मुस्कराता नजर आता है। हेयर डाई से सलीके से डाई किये बाल, सफ़ेद खादी सिल्क के कुर्ते पर सावन की काली घटा जैसे कुछ इस तरह छाये रहते हैं कि कविगण इस कल्पना पर कई पन्ने काले कर सकते हैं।

एक बार मेरे ससुर ने पूछा "बेटा क्या अब तुम सुखी हो, कोई तकलीफ़ तो नहीं ?"। मेरे मुँह से निकल पड़ा " जी... बिल्कुल मजे में हूँ। आपका दिया सारा सुख मेरे पास है"। फ़ैक्ट्रियों से जितना वक्त बचता है, वह पैट्रोल पंपों की कमाई गिनने में कट जाता है। बस यह आपका इम्पोर्ट- एक्सपोर्ट का नया सुख मुझसे नहीं संभाला जा रहा। वो बोले, बेटा हिम्मत से काम लो। अपने साले को देखो जरा, उसके पास चार फ़ैक्ट्रियाँ और तीन पैट्रोल पंप हैं, फिर भी वह मेरे और अपने ससुर के काम में हाथ बटाता है। चुनाव का मौका हो, रैली निकलवानी हो या भीड़ इकट्ठी करनी हो, कैसे चुट्की बजाते सारा काम कर देता है।

देखा आपने! यकीनन मेरे ससुर, मेरा साला, उसके ससुर सभी सुखी हैं। उनके सुखी होते ही सुख का इतना प्रचार और प्रसार हुआ कि उनके सभी अभिन्न मित्र और सगे-संबधी भी सुख के सागर में तैरने लगे। मैं अपने पूर्वजों को कभी नहीं भूलता और न ही उनकी कही गयी व्यवहारिक बातों को। उनकी बातें आज भी प्रयोगात्मक रुप से सही हैं। जैसे उन्होंने कहा कि "बाँट्ने से बोझ हल्का होता है"। यह उक्ति हम सभी पर सोलह आने सटीक उतरती है। मेरे साले के ससुर के पास जब बहुत सा सुख इकट्ठा हो गया तो उन्होंने सुखों का थोड़ा सा बोझ अपने दामाद और रिश्तेदारों के साथ बांट कर चैन की सांस ली।

इस बंदरबांट में मेरे हिस्से भी सुख की कुछ बूंदे मेरे ससुर द्वारा मेरी ओर ट्पकायी गयीं (आखिर सभी मां बाप अपनी संतानों को सुखी देखना चाहते है)। सुख से, सुख के साथ अच्छा समय बीतता रहा। और जैसा सभी के साथ होता है, एक वक्त के बाद मेरे उपर भी सुख का बोझ बढ़्ने लगा। अंतत: मुझे भी अपने मित्रों और रिश्तेदारों के साथ अपना बोझ हल्का करना पड़ा। आज मेरे प्रिय मित्र और रिश्तेदार भी सुखी हैं।

धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि मैं जितना सुख बाँट रहा हूँ, उतना ही यह और बढ़्ता जा रहा है। दूर-दूर के रिश्तेदारों तक बाँटने पर भी जब इस सुख का बोझ हल्का नहीं हुआ, तो मुझे मजबूरन अनाथालयों, दानखातों, चेरिटेबिल संसथाओं जैसे सड़े गले सामाजिक ढ्कोसलों की शरण में जाना पड़ा। यह किसी बेइज्जती से कम नहीं था, पर इस तरह धड़ा-धड़ सुख बांटने के कारण लोगों के दिलों में मेरे लिये असीम प्यार उमड़ पड़ा। देखते ही देखते मुझे घसीटकर किसी पार्टी का टिकट थमाकर, भारी मतों से विजयी बनाकर चार टांगो वाली एक कुर्सी का मंत्री बना दिया गया।

इस वक्त मेरा सुख (साथ में कमर का नाप भी) रामायण-महाभारत के एपिसोड़ों की तरह बढ़्ता जा रहा था। अब मेरे पास इस सुख को ए़क्सपोर्ट करने के अलावा कोई रास्ता न बचा। ए़क्सपोर्ट में मेरे साले व ससुर का सहयोग मुझे नतमस्तक कर गया। इसी दौरान मुझे चारा, यूरिया, कोलतार, सीमेंट, बोफ़ोर्स आदि खाने का अभ्यास करना पड़ा। मैं शुक्रगुजार हूं अपने पेट, पाचन तन्त्र का जिसने उसे आसानी से पचाया वरना आजकल आम आदमी शुद्ध घी भी नहीं पचा पा रहा। सुखों के भारी बोझ ने मुझे ए़क्सपोर्ट की नई विधियां तलाशने को मजबूर किया।

इस तरह मैं ए़क्सपोर्ट ए़क्सपर्ट बना और सम्मानित हुआ। आज कई विदेशी बैंकों में मेरा बहुत सा सुख जमा है।मुझे शिकायत है उन सुखरामों से जो सुख के चंद टुकड़े बिस्तर के नीचे छोड़कर या भूलकर सुख का अपमान करते हैं और फिर विदेश भाग जाते हैं। दूर दूर तक नजर दौड़ाने पर भी मुझे अपना कोई रिश्तेदार या मित्र नजर नहीं आता, जिसे मेरे सुख से सुख ना मिला हो। मेरा उसूल हमेंशा बाँट कर सुख भोगने का है और हमेशा रहेगा। यदि आप इन सभी सुखों से दूर हैं तो यह आपकी बदकिस्मती है कि आप इस जन्म में मेरे या अन्य किसी सुखी सज्जन के मित्र या रिश्तेदार न हुए।

6 comments:

  1. सुख पाने का आपने सीख लिया जो मंत्र।
    ईश कृपा से बचा रहे आपका पाचन तन्त्र।।

    रोचक प्रस्तुति।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. ha ha ha ha
    ha ha ha ha

    anand aa gaya____________badhaai !

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  3. इस महा सुख के पनघट का एक हिस्सा तो मेरे ही पास है

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  4. एक सकारात्मक , रोचक व् सराहनीय व्यंग्य !
    आप लिखिए, और लिखिए.
    आपकी अगली कृति की प्रतीक्षा है.
    सादर.

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  5. wah wah!!

    -Vikas Roorkeewal

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